वक्त – सुबह 11 बजे, स्थान – सिमोनाबस्ती प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र, कोलियाबोर, नगांव। उलुओनी गांव के ओझा परिवार की सबसे छोटी सदस्य देवांशी रो रही है, वह जानती है कि उसे जल्द ही वैक्सीन की आवश्यक खुराक का इंजेक्शन लगाया जाएगा। मामोनी बोरा चुपचाप उसे उठाती हैं और दिलासा देकर अपनी नीली बॉर्डर वाली साड़ी में सहेज लेती हैं। नीले बॉर्डर की साड़ी वाली ये पोशाक पूरे गाँव में प्रसिद्ध है। क्योंकि यह आशा बाइदेउ की पोशाक है, जिसे ममोनी और उसके जैसे कई असम भर में पहचानते हैं। वह लगभग 15 वर्षों तक आशा बाइदेउ के रूप में काम करने के बाद गांव में एक जानी पहचानी शख्सियत हैं। अब देवांशी का रोना बंद हो गया है; एक एएनएम उसे टीका लगाती है, बच्चा फिर से रोता है लेकिन कुछ देर में फिर शांत हो जाता है। अब सुबह के 11.05 बजे हैं।
आज मामोनी की ही तरह मिलि सैकिया और डॉली बोरा जैसी महिलाएं उन 10 लाख से अधिक आशा कार्यकर्ताओं में शामिल हैं, जो ग्रामीण भारत में प्राथमिक स्वास्थ्य की एक देशव्यापी विशेषता है। इन गुमनाम नायकों ने देश में बुनियादी स्वास्थ्य देखभाल के तौर तरीके को बदल कर रख दिया है। कोविड-19 की महामारी के दौरान उनके महत्वपूर्ण योगदान को मान्यता देने के लिए विश्व स्वास्थ्य संगठन ने 22 मई को इस समुदाय को ग्लोबल हेल्थ लीडर्स अवार्ड से सम्मानित किया है।
ये आशा वर्कर्स 2005 से राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन कार्यक्रम के तहत प्रत्येक गांव में तैनात हैं और समुदाय और सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली के बीच की महत्वपूर्ण कड़ी हैं। ये प्रजनन और बाल स्वास्थ्य (आरसीएच) और अन्य स्वास्थ्य कार्यक्रमों के लिए सार्वभौमिक टीकाकरण, रेफरल और सहयोगी सेवाओं जैसे कार्यक्रमों के लिए जिम्मेदार हैं। इसके साथ ही ये घरेलू शौचालयों के निर्माण में भी मदद करती हैं। इस बात में कोई आश्चर्य नहीं है कि साल 2005 के बाद संस्थागत जन्म दर पूरे भारत में कई गुना बढ़ गई है, जिसका श्रेय विशेषज्ञ इन आशाओं को देते हैं। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के ये आंकड़े उनके महत्वपूर्ण योगदान को चिन्हित करने के लिए काफी हैं।

कलियाबर उपखंड में कुवारिटोल प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र की डॉली बोरा डेका उन चुनौतियों को याद करती हैं जिनका उन्होंने एक समर्पित आशा वर्कर के रूप में सामना किया। वह असम वार्ता से बात करते हुए कहती हैं, “मैं 2021 में कोविड -19 महामारी की दूसरी लहर के दौरान बेहद व्यस्त थी। घर के कामों के अलावा मैं एक साल के बच्चे की मां भी थी। मुझे ग्रामीणों को कोविड टेस्ट के लिए प्रोत्साहित करते हुए संभावित लक्षणों के बारे में भी बताना था। इस दौरान कई बार विषम हालात बन गए। मिसाल के तौर पर कोविड टेस्ट के लिए प्रोत्साहित करने पर एक गर्भवती महिला ने मुझे खूब भला-बुरा कहा।’’ डेका आगे बताती हैं कि “महिला ने अपनी तीसरी तिमाही की गर्भावस्था के दौरान कोविड टेस्ट कराया और वो अपने पति समेत कोविड पॉजिटिव निकली। मैं भी उनके साथ स्वास्थ्य केंद्र गई थी और ये सोच कर ही मैं डर से सिहर गई। मुझे अपने ही बच्चे की चिंता थी।’’ डॉली का कहना है कि पेशे में चुनौतियां हैं लेकिन फिर दिन के आखिर में निराशा से ज्यादा संतुष्टि होती है।
असम में आशा वर्कर्स की कुल संख्या 32,545 है, जिसमें से 31,334 ग्रामीण क्षेत्रों में तैनात हैं, जबकि शेष राज्य के शहरी क्षेत्रों में भी उत्प्रेरक की भूमिका निभाते हैं। इसके अलावा इन जमीनी स्वास्थ्य योद्धाओं का मार्गदर्शन करने के लिए 2,661 आशा पर्यवेक्षक हैं।
साइमनबस्ती स्वास्थ्य केंद्र के तहत 93,000 की आबादी के लिए 80 आशा हैं। वे केलीडॉन, नोनोई और सालना जैसे चाय बागानों के श्रमिकों की जिम्मेदारी भी उठाते हैं। साइमनबस्ती ब्लॉक के ब्लॉक प्रोग्राम मैनेजर सैफुर रहमान कहते हैं कि “निस्संदेह उन्हें अपने कर्तव्यों का निर्वहन करते समय कई बाधाओं का सामना करना पड़ता है। लेकिन, उनका धैर्य और अटूट समर्पण उन्हें इस कठिन समय से मजबूती प्रदान करता है”।
ऐसी ही एक विकट चुनौती का सामना शोणितपुर के फूलगुड़ी गारो गांव की बरमिता मोमिन को करना पड़ा। इस गांव में अंधविश्वास का बोलबाला है। बरमीता को अपने काम के दौरान एक पेड़ से बांध दिया गया था। उसे तभी रिहा किया गया जब उसने ग्रामीणों को दंड के तौर पर ‘मुआवजा’ दिया। इस घटना के बावजूद उन्होंने कोविड -19 के दौरान शुरू किए गए ’हर घर दस्तक’ अभियान में 100 फीसदी कवरेज हासिल किया। उन्हें तब संतोष हुआ जब असम सरकार ने उन्हें ’असम गौरव’ का सम्मान दिया।
कुवारिटोल की एक आशा वर्कर मिली सैकिया कहती हैं, ‘‘हमारी व्यस्त घरेलू दिनचर्या और ऑन-ग्राउंड ड्यूटी के बावजूद हमें जो संतुष्टि मिलती है, वह यह है कि जब हम कुछ सुझाव देते हैं तो लोग हमें गंभीरता से लेते हैं।’’ वह आगे कहती हैं, ‘’चाहे वह गर्भवती हो या स्तनपान कराने वाली, या ऐसे समय में किसी को वैक्सीन की जरूरत हो, हमसे भी सलाह ली जाती है’’।
समतल भूमि, पहाड़ी इलाके या पानी वाली सड़कें; पैदल का रास्ता हो या एक अस्थायी बेड़ा, एक गांव के परिवारों से गुजरती आशा वर्कर्स की उपस्थिति बहुत ही खास है। वो कभी भी अपने कर्तव्य से पीछे नहीं हटतीं।